वाष्पोत्सर्जन
पौधों के विभिन्न वायव अंगों द्वारा जल के वाष्प रूप में
त्यागने की क्रिया को वाष्पोत्सर्जन कहते है I
यह क्रिया तीन प्रकार से होती है –
1. रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन – पत्तियों की निचली सतह पर छोटे-छोटे छिद्र
होते है, जिनकों रन्ध्र कहते है I इन्हीं रंध्रों से वाष्प विसरित होकर वातावरण
में चली जाती है I इस प्रकार के वापोत्सर्जन को रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन कहते है I
2.
उपत्वचीय वाष्पोत्सर्जन – बाह्यत्वचा के ऊपर उपत्वचा पायी जाती है I
इनका मुख्य कार्य वाष्पोत्सर्जन को कम करना है, परन्तु कुछ मात्रा में जल इनसे
होकर वाष्प के रूप में वातावरण में चला जाता है I इस प्रकार के वाष्पोत्सर्जन को
उपत्वचीय वाष्पोत्सर्जन कहते है I
3.
वातरंध्रीय वाष्पोत्सर्जन
– बहुत से काष्ठीय पौधों
के तनों में वातरन्ध्र पाए जाते है I कुछ जल वाष्प के रूप में इन वातरन्ध्रों
द्वारा उड़ जाता है I इसको वातरंध्रीय वाष्पोत्सर्जन कहते है I
वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक
वाष्पोत्सर्जन मुख्यतः दो कारकों से प्रभावित होता है –
1.
आंतरिक कारक
a.
पत्ती की आंतरिक संरचना – शुष्क जलवायु में उगने वाले पौधों की पत्तियों
की बाह्यत्वचा क्यूटिकल, मोम अथवा रोमों से ढकी होती है व रन्ध्र निमग्न होते है I
ये लक्षण वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करते है I
b.
मूल प्ररोह अनुपात – मूल प्ररोह अनुपात में वृद्धि से पौधों में
वाष्पोत्सर्जन में भी वृद्धि होती है I
c.
पत्ती का दिक्-विन्यास – यदि पत्तियों का दिक्-विन्यास आपतित विकिरण के
समकोण पर हो तो उन पर सूर्य की किरणों का सबसे अधिक प्रभाव होता है व
वाष्पोत्सर्जन दर अधिक होती है I
2.
बाह्य कारक
a. प्रकाश – प्रकाश की उपस्थिति प्रत्यक्ष रूप में रंध्रों
के खुलने एवं अप्रत्यक्ष रूप से तापक्रम में वृद्धि से वाष्पोत्सर्जन की दर को
बढ़ाती है I
b.
वायु – तेज हवा के कारण वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है I
c.
मिट्टी में प्राप्य जल की
मात्रा – प्राप्य जल की मृदा में
कमी होने के कारण वाष्पोत्सर्जन की दर घट जाती है I
d.
तापमान – तापमान बढ़ने से वायुमंडल की आपेक्षिक आर्द्रता
कम हो जाती है व वाष्पोत्सर्जन की दर अधिक होती है I
वाष्पोत्सर्जन का महत्व
वाष्पोत्सर्जन से पौधों को निम्न लाभ है –
i.
पौधों में रसारोहण
वाष्पोत्सर्जन अपकर्ष पर निर्भर करता है I
ii.
पौधों में वाष्पोत्सर्जन
द्वारा खनिज लवणों व जल का अवशोषण व स्थानान्तरण होता है I
iii.
वाष्पोत्सर्जन पत्ती के
तापमान को भी कम रखता है I
iv.
अतिरिक्त जल का निकास
करना I
रन्ध्र गति की क्रियाविधि के सक्रिय पोटैशियम आयन
स्थानान्तरण सिद्धान्त
·
यह सिद्धान्त जापानी वैज्ञानिक
इमामूरा तथा फ्युजीनों ने प्रतिपादित किया तथा लेविट ने इसे रूपांतरित किया I
रन्ध्र का खुलना –
दिन में द्वार कोशिकाओं में मैलिक अम्ल बनता है जो वियोजित
होकर मैलेट व हाइड्रोजन आयन बनाता है I पौटेशियम आयन समीपवर्ती कोशिकाओं से द्वार कोशिका
में प्रवेश करते है एवं हाइड्रोजन आयन द्वार कोशिकाओं से बाहर निकलते है I द्वार
कोशिका में पौटेशियम आयन मैलेट से क्रिया करते है जिससे पौटेशियम मैलेट बनता है जो
द्वार कोशिकाओं की परासरण सांद्रता को बढ़ाता है I अत: जल का प्रवाह द्वार कोशिकाओं
में होता है जिससे वे स्फीत हो जाती है और रन्ध्र खुल जाते है I
रन्ध्र का बंद होना –
रात्री में प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है अत: द्वार
कोशिकाओं में CO2 की सान्द्रता बढ़ जाती है I मैलिक अम्ल स्टार्च में
परिवर्तित हो जाता है जिससे द्वार कोशिकाओं की परासरण सांद्रता कम हो जाती है I अत:
बाह्य परासरण के कारण जल बाहर प्रवाहित होता है एवं द्वार कोशिकाएं शल्थ अवस्था
में आ जाती है I इस कारण रन्ध्र बंद हो जाते है I
बिन्दुस्राव - पत्तियों के उपांतो से जल का छोटी-छोटी बूंदों के रूप में स्राव बिन्दुस्राव
कहलाता है I उदा. आलू, अरबी आदि I
रसस्राव – पौधें के कटे या क्षतिग्रस्त भाग से रस का बाहर आना रसस्राव कहलाता है I
पौधों की जाइलम वाहिकाओं में रस मूल दाब के कारण धनात्मक तनाव में रहता है I जाइलम
वाहिकाओं के कटने पर इसका रिसाव बाहर होने लगता है I