जल संरक्षण
Water Conservation
किसी स्थान पर वर्षा जल का उचित जल प्रबंध कर संग्रहण करना
ही उस स्थान का जल संरक्षण है ताकि मानसून काल के अतिरिक्त जल को बाँधों, तालाबों तथा झीलों अथवा छोटे जलस्त्रोत में
इकट्ठा करके शेष अवधि में प्रयोग लिया जा सके।
राजस्थान में परम्परागत जल संरक्षण के रूप –
1. बावड़ी –
चतुष्कोणीय, गोल व वर्तुल आकार में
निर्मित जल स्त्रोत जिसके प्रवेश मार्ग से मध्य मार्ग तक ईंटों तथा कलात्मक पत्थरों
का प्रयोग किया गया है, इनके आगे आंगननुमा भाग
होते हैं। इन मार्गों तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां बनी रहती है। इन सीढ़ियों पर
कलात्मक मेहराब व स्तम्भ व झरोखे होते हैं। इन झरोखों में स्थानीय जलदेवता की
मूर्तियाँ होती है।
बूंदी शहर को बावड़ियों की अधिकता के कारण सदैव सिटी ऑफ
स्टैप वेल्स कहा जाता है। इसके अलावा जोधपुर की तापी बावड़ी, दौसा की भाड़ारेंज बावड़ी, चित्तौड़ की विनाता की बावड़ी व आभानेरी की
चान्द बावड़ी प्रसिद्ध है।
2. तालाब –
(i) तालाब में वर्षा जल को एकत्रित
किया जाता है।
(ii) ये पशुधन तथा मानव के पेयजल का स्त्रोत रहे है।
(iii) अधिकांश तालाबों का निर्माण ढालू भाग के समीप किया गया है।
राजस्थान के प्रमुख तालाब जो तत्कालीन समय में जल स्त्रोत
रहे है। पाली में हेमाबास तालाब, सरेरी तथा मेजा तालाब
भीलवाड़ा में, बानकिया तथा सेनापानी
तालाब चित्तौड़ जिले में, गड़ीसर व गजरूपसागर
जैसलमेर जिले में प्रसिद्ध रहें हैं।
3. झीलें –
(i) झीलें राज्य में बहते हुए जल का संरक्षण करने में
सर्वाधिक प्रचलित स्त्रोत रही है।
(ii) ये पेयजल के साथ-साथ सिंचाई के साधन के रूप में प्रचलित
रही है।
(iii) झीलों से नहरें निकाल कर समीप के भागों में सिंचाई
कार्य किया जाता रहा है।
(iv) झीलें जहाँ स्थानीय आर्थिक तथा सामाजिक विकास में
सहायक रही वहीं अकाल तथा सूखे में जीवनदायिनी रही है।
झीलों में अजमेर की आनासागर, उदयपुर की पिछौला तथा फतेहसागर, चुरू की तालछापर, जालोर का बाकली बांध, टोंक का टोरडीसागर, पाली का सरदारसमन्द, बूंदी की नवलखा झील तथा राजसमन्द की नौ चौकी झील प्रसिद्ध है।
4. नाडी –
सामान्यतः तालाब का छोटा रूप होता है। नाडी में रेतीले
मेदानी भाग में वर्षा जल को एकत्रित किया जाता है। सामान्य रूप से 4 से 5 मीटर
गहरी होती है। इसमें छोटा आकार तथा कम गहराई तथा वर्षा जल के साथ आने वाली मिट्टी
के कारण वर्षा जल अल्प काल के लिए इकट्ठा होता है। इन नाडियों की मिट्टी को
प्रतिवर्ष निकाला जाकर और नाड़ियों को गहरा किया जाता है। ये प्रायः पश्चिमी
राजस्थान में ग्रामीण जनसंख्या, पशुओं तथा वन्य जीवों के पेयजल
का मुख्य स्त्रोत रही है।
5. टांका –
पश्चिमी राजस्थान में परम्परागत जल संग्रहण तथा जल संरक्षण स्त्रोत जो कि प्रत्येक घर तथा खेत में
भूमि में 5 से 6 मीटर गहरा गढ्ढा खोदकर बनाया जाता है। इसके ऊपरी भाग को पत्थरों
अथवा स्थानीय उपलब्ध संसाधनों से ढक दिया जाता है। इसमें घरों की छत तथा आगोर से आने वाले वर्षा
जल का संग्रहण कर दिया जाता है। इसके आन्तरिक भाग में राख तथा बजरी का लेप कर दिया
जाता है जो जल रिसाव व तली के कटाव को रोकता है। राजस्थान में जलस्वावलम्बन योजना तथा अन्य
योजनाओं में इन टांकों का निर्माण किया जा रहा है।
6. जोहड़ –
यह शेखावाटी क्षेत्र तथा हरियाणा में वर्षा जलसंग्रहण का
साधन है। इसका ऊपरी भागं टांके से बड़ा तथा गोलाकार और खुला होता है। जिसमें बहते
हुए वर्षा जल को इसके आगोर के माध्यम से इकटठा किया जाता है। ये जोहड़ पशुओं तथा
मानव के लिए पेयजल का उत्तम स्रोत है।
7. बेरी या छोटी कुई –
यह पश्चिमी राजस्थान में तालाब तथा खडीन में आगोर भूमि में 5 से 6 मीटर गहरा गढ्ढा खोदकर बनाई जाती है। इसका व्यास 2 से 3 फीट होता है तथा इसकी दीवारो को पत्थरों से बांधा जाता है
जिससे भूमिगत जल रिस कर आता रहे। इसका उपयोग ग्रीष्म ऋतु में वर्षा जल के सूखने के
बाद किया जाता है इसे स्थानीय भाषा में बेरी कहा जाता है। राजस्थान में बेरियाँ
बाड़मेर व जैसलमेर में पाई जाती है।
8. खड़ीन –
खड़ीन में पहाड़ी भागों में वर्षा काल में बहते हुए जल को
ढालू भागों पर कच्ची अथवा पक्की मेड़ या दीवार बनाकर रोका जाता है। तथा अतिरिक्त
जल को इस दीवार के एक भाग से निकाल दिया जाता है जिससे इससे लगते दूसरे खड़ीन भूमि
को जल मिल सके इस खड़ीन भूमि में वर्षा
जल से भूमिगत जल में वृद्धि, मिट्टी संरक्षण तथा मिट्टी में नमी बनी रहती है। इससे
रबी तथा खरीफ की दोनों फसलें आसानी से पैदा होती है साथ ही इसके किनारो तथा आगोर
पर बनी बेरियो से ग्रीष्मकाल में पेयजल मिलता रहता है।
जल स्वालम्बन -
वर्तमान में भूमिगत गिरते जलस्तर तथा स्थानीय स्तर पर
प्रचलित जलस्त्रोतों की दुर्दशा तथा बड़े बाँधों में बढ़ती मिट्टी की गाद तथा
वर्षा की कमी के कारण जलसंकट की विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगी। साथ ही बढ़ती
जनसंख्या से जल की बढ़ती माँग के कारण संकट और भी गंभीर हो गया है इस कारण भारत
सरकार ने जल क्रान्ति अभियान तथा राजस्थान सरकार ने मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन
कार्यक्रम आरम्भ किये हैं। इन कार्यक्रमों को आरम्भ करने का मुख्य उद्देश्य
स्थानीय स्तर पर जल का समुचित प्रबंधन किया जाना है।
वर्तमान समय में जल की कमी से उत्पन होने वाले संकट से
मुक्ति के लिए जल स्वावलम्बन आवश्यक हो गया है जिसके अन्तर्गत-
(i) स्थानीय स्तर पर जल की बचत तथा जल के उपयोग को व्यवस्थित
करना तथा वर्षा जल को स्थानीय स्तर पर संरक्षित कर उसका समुचित प्रबंधन करना है।
(ii) इसमें इन परम्परागत स्त्रोतों का स्थानीय स्तर पर
पुनर्विकास करके उसका सिंचाई तथा अन्य कार्यों में उपयोग किया जाए।
(iii) स्थानीय स्तर पर वर्षा जल व भूजल का इस प्रकार से उपयोग
किया जाए जिससे भविष्य में स्थानीय स्तर पर जल उपलब्ध हो सके।
मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन योजना -
राजस्थान सरकार के द्वारा मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन योजना
में ग्रामीण स्तर पर जलग्रहण क्षेत्र को प्राकृतिक संसाधन मानते हुए स्थानीय स्तर
पर राज्य सरकार तथा भामाशाहों के सहयोग से जल प्रबंधन कर आत्मनिर्भर करना है।
(i) इस योजना में भू-जल स्तर में वृद्धि व गुणवत्ता में सुधार
कार्य करने के साथ साथ प्राचीन स्त्रोतों जैसे कुएं, तालाब, नाडी तथा लुप्त हो रहे जल
संसाधनों को पुनर्जीवित करने का कार्य किया जाएगा।
(ii) इसमें पंचायत स्तर पर नाडियों, तालाबों व कुओं की खुदाई तथा इनकी दीवारों को ठीक करने का
कार्य करना तथा इन जल स्त्रोतों के जल प्राप्ति क्षेत्रों में आने वाले अवरोधों को
हटा कर जल प्राप्ति के मार्ग को दुरूस्त करने का कार्य किया जाना है।
(iii) इस अभियान की अवधि 4 वर्ष होगी जिसमें राज्य
द्वारा विभिन्न विभागों में समन्वय स्थापित कर 21000 गाँवों को लाभान्वित किया जाएगा।
(iv) इस कार्यक्रम में गैरसरकारी संगठनों, धार्मिक ट्रस्टों, अप्रवासी ग्रामीण भारतीयों व स्थानीय ग्रामीणों की भागीदारी से जलग्रहण
क्षेत्रों के उपचार जिसमें डीप कन्टीन्यूअस कन्टूर ट्रेन्चेज, स्ट्रेगर्ड, फार्म पोण्ड, मिनि परकोलेशन टेन्क, संकन गली पिट, खडीन, जोहड़, टांका निर्माण करना है। श्रृंखलाबद्ध छोटे-छोटे
एनिकट, मिट्टी के चेकडेम एवं जल
संग्रहण ढाँचा, नाला स्थरीकरण के कार्य
करना है।
(v) इसके अलावा माईनर ईरिगेशन टैंक की मरम्मत, नवीनीकरण, सुदृढ़ीकरण कार्य एवम जलस्त्रोतों को नालों से जोड़ना,
चारागाह विकास तथा वृक्षारोपण कार्य, कृत्रिम भू-जल पुनर्भरण संरचनाओं के पुर्नजलभरण
कार्य एवं फसल व उद्यानिकी में उन्नत तकनीकों को बढ़ावा देना है।
(vi) साथ ही ग्रामीणों में इन जल स्रोत के संरक्षण के प्रति
जागरूकता बनाए रखने के उद्देश्य से इनके महत्ता का प्रचार प्रसार विभिन्न नुक्कड़
नाटकों तथा मेलों व रैलियों के माध्यम से किया जाएगा।